Wednesday, April 8, 2020

राम नहीं मैं

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राम नही मैं

हृदय तुम्हारा जीतने को
शिव का धनुष तोड़ जाऊंगा
मान तुम्हारा रखने को
रावण से भी लड़ जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा

तुम्हारी हर ना को ना नहीं कहूंगा
ना तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊँगा

उर्मिला की भांति तुम भी
मात पिता की सेवा कर सकती थी
हठधर्मिता छोड़कर अपनी तुम
मेरे कर्तव्य पूर्ण कर सकती थी
पर चाहा तुमने ना अकेला रहना
जिस को त्याग का नाम दिया

चलो वह बात भी भूल जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा

माना कि स्वामी नहीं मैं तुम्हारा
केवल सेवक बनकर रहता हूं
तुम्हारा जीवन सुखमय करने को
हर प्रयास मैं करता रहता हूँ
तुम्हें भूखा सोना ना पड़े इस सोच में
यह भूल गया कि मैं स्वयं क्या खाऊंगा
पर राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊंगा

वह हठ ही थी जो तुमने
राजपाट धन वैभव छोड़ दिया
वह हठ ही थी जो तुमने
लक्ष्मणरेखा को भी तोड़ दिया
वह हठ ही थी जो स्वर्ण मृग पाने को
मन तुम्हारा ललायित हुआ
उस हठ ही का परिणाम था वह
जो मन मेरा भी आहत हुआ
तुम अकेली नहीं थी वियोग में
उस अग्नि में जलता राम भी था
तुम रोती थी सबके सामने पर
अकेले में गलता राम भी था
तुम्हारी हठ के कारण अब मैं
और नहीं ये कष्ट उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा

 माना कि छल तो रावण का था
 पर रेखा तुमने लांघी थी
 सत्य यही है जिसकी
 क्षमा भी तुम ने मांगी थी
 उस एक तुम्हारी गलती ने
 राम का वीर्य हिला डाला
 जग पालन करने वाले को ही
 जग जग का भिक्षुक बना डाला
तुम्हारी गलतियों का अब नहीं मैं
और यूँ भोग उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा

 जिस सीता ने बलिदान दिया
 त्याग किया परित्याग किया
 उसके होते प्रश्न यदि यह
 तो मैं भी उत्तर दे देता
 प्रेम से यदि वह समर्पण करती
 तो मैं भी जीवन दे देता
 पर यह तो है कोई और ही माया
 जिसके ऊपर है कलयुग की छाया
 चाह नहीं मेरी कि तुम सीता बन जाओ
 मैं भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहाँ
 उस रामचरित में त्याग जो है
 वह भाव कहाँ वह त्याग कहाँ

सीता ने तो आर्य नियम का
पालन किया जो उसके काम थे
वो थी सीता जिसके पति
मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे
जो तुम नहीं बन पाओगी सीता
तो मैं राम कहाँ से बन पाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा

सीता नहीं मैं

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सीता नहीं मैं 

तुम्हारे साथ वन-वन भटकूँगी
कंद-मूल खाऊँगी
सहूँगी वर्षा आतप सुख-दुख
तुम्हारी कहाऊँगी
पर सीता नहीं मैं 
धरती में नहीं समाऊँगी। 

तुम्हारे सब दुख सुख बाटूँगी
अपना बटाऊँगी
चलूँगी तेरे साथ पर 
तेरे पदचिन्हों से राह नहीं बनाऊँगी
भटकूँगी तो क्या हुआ
अपनी राह खुद पाऊँगी 
मैं सीता नहीं हूँ 
मैं धरती में नहीं समाऊँगी। 

हाँ.....सीता नहीं मैं
मैं धरती में नहीं समाऊँगी 
तुम्हारे हर ना को ना नहीं कहूँगी
न तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊँगी
मैं सीता नहीं हूँ 
मैं धरती में नहीं समाऊँगी। 

मैं जन्मीं नहीं भूमि से 
मैं भी जन्मी हूँ तुम्हारी ही तरह माँ की
कोख से 
मेरे जनक को मैं यूँ ही नहीं मिल गई थी कहीं
किसी खेत या वन में
किसी मंजूषा या घड़े में।

बंद थी मैं भी नौ महीने 
माँ ने मुझे जना घर के भीतर
नहीं गूँजी थाली बजने की आवाज
न सोहर
तो क्या हुआ
मेरी किलकारियाँ गूँजती रहीं 
इन सबके ऊपर
मैं कहीं से ऐसे ही नहीं आ गई धरा पर
नहीं मैं बनाई गई काट कर पत्थर। 

मैं अपने पिता की दुलारी
मैं माँ कि धिया
जितना नहीं झुलसी थी मैं 
अग्नि परीक्षा की आँच से
उससे ज्यादा राख हुई हूँ मैं 
तुम्हारे अग्नि परीक्षा की इच्छा से
मुझे सती सिद्ध करने की तुम्हारी सदिच्छा। 

मैं पूछती हूँ तुमसे आज
नाक क्यों काटी शूर्पणखा की
वह चाहती ही तो थी तुम्हारा प्यार
उसे क्यों भेजा लक्ष्मण के पास
उसका उपहास किया क्यों
वह राक्षसी थी तो क्या 
उसकी कोई मर्यादा न थी

क्या उसका मान रखने की तुम्हारी कोई मर्यादा न थी
तुम तो पुरुषोत्तम थे
नाक काट कर किसी स्त्री की 
तुम रावण से कहाँ कम थे।
तुमने किया एक का अपमान
तो रावण ने किया मेरा

उसने हरण किया बल से मेरा
मैं नहीं गई थी लंका
हँसते खिलखिलाते
बल्कि मैं गई थी रोते बिलबिलाते
अपने राघव को पुकारते चिल्लाते
राह में अपने सब गहने गिराते
फिर मुझसे सवाल क्यों
तुम ने न की मेरी रक्षा
तो मेरी परीक्षा क्यों 

बाँटे मैंने तुम्हारे सब दुख-सुख 
पर तुमने नहीं बाँटा मेरा एक दुख
मेरा दुख तुम तो जान सकते पेड़ पौधों से 
पशु-पंछिओं से
तुम तो अन्तर्यामी थे
मन की बात समझते थे
फिर क्यों नहीं सुनी 
मेरी पुकार। 

मुझे धकेला दुत्कारा पूरी मर्यादा से 
मुझे घर से बाहर किया पूरी मर्यादा से
यदि जाती वन में रोते-रोते
तो तुम कैसे मर्यादा पुरुषोत्तम होते 
मेरे कितने प्रश्नों का तुम क्या दोगे उत्तर
पर हुआ सो हुआ चुप यही सोच कर
अब सीता नहीं मैं
सिर्फ तुम्हारी दिखाई दुनिया नहीं है मेरे आगे

अपना सुख दुख मैं अकेले उठाऊँगी
याद करूँगी हर पल हर दिन तुम्हें
पर धरती में नहीं समाऊँगी।
सीता नहीं मैं
मैं आँसू नहीं बहाऊँगी।
सीता नहीं मैं 
धरती में मुँह नहीं छिपाऊँगी
धरती में नहीं समाऊँगी!