Reply Original
राम नही मैं
हृदय तुम्हारा जीतने को
शिव का धनुष तोड़ जाऊंगा
मान तुम्हारा रखने को
रावण से भी लड़ जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
तुम्हारी हर ना को ना नहीं कहूंगा
ना तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊँगा
उर्मिला की भांति तुम भी
मात पिता की सेवा कर सकती थी
हठधर्मिता छोड़कर अपनी तुम
मेरे कर्तव्य पूर्ण कर सकती थी
पर चाहा तुमने ना अकेला रहना
जिस को त्याग का नाम दिया
चलो वह बात भी भूल जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
माना कि स्वामी नहीं मैं तुम्हारा
केवल सेवक बनकर रहता हूं
तुम्हारा जीवन सुखमय करने को
हर प्रयास मैं करता रहता हूँ
तुम्हें भूखा सोना ना पड़े इस सोच में
यह भूल गया कि मैं स्वयं क्या खाऊंगा
पर राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊंगा
वह हठ ही थी जो तुमने
राजपाट धन वैभव छोड़ दिया
वह हठ ही थी जो तुमने
लक्ष्मणरेखा को भी तोड़ दिया
वह हठ ही थी जो स्वर्ण मृग पाने को
मन तुम्हारा ललायित हुआ
उस हठ ही का परिणाम था वह
जो मन मेरा भी आहत हुआ
तुम अकेली नहीं थी वियोग में
उस अग्नि में जलता राम भी था
तुम रोती थी सबके सामने पर
अकेले में गलता राम भी था
तुम्हारी हठ के कारण अब मैं
और नहीं ये कष्ट उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
माना कि छल तो रावण का था
पर रेखा तुमने लांघी थी
सत्य यही है जिसकी
क्षमा भी तुम ने मांगी थी
उस एक तुम्हारी गलती ने
राम का वीर्य हिला डाला
जग पालन करने वाले को ही
जग जग का भिक्षुक बना डाला
तुम्हारी गलतियों का अब नहीं मैं
और यूँ भोग उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
जिस सीता ने बलिदान दिया
त्याग किया परित्याग किया
उसके होते प्रश्न यदि यह
तो मैं भी उत्तर दे देता
प्रेम से यदि वह समर्पण करती
तो मैं भी जीवन दे देता
पर यह तो है कोई और ही माया
जिसके ऊपर है कलयुग की छाया
चाह नहीं मेरी कि तुम सीता बन जाओ
मैं भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहाँ
उस रामचरित में त्याग जो है
वह भाव कहाँ वह त्याग कहाँ
सीता ने तो आर्य नियम का
पालन किया जो उसके काम थे
वो थी सीता जिसके पति
मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे
जो तुम नहीं बन पाओगी सीता
तो मैं राम कहाँ से बन पाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
राम नही मैं
हृदय तुम्हारा जीतने को
शिव का धनुष तोड़ जाऊंगा
मान तुम्हारा रखने को
रावण से भी लड़ जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
तुम्हारी हर ना को ना नहीं कहूंगा
ना तुम्हारी हर हाँ में हाँ मिलाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊँगा
उर्मिला की भांति तुम भी
मात पिता की सेवा कर सकती थी
हठधर्मिता छोड़कर अपनी तुम
मेरे कर्तव्य पूर्ण कर सकती थी
पर चाहा तुमने ना अकेला रहना
जिस को त्याग का नाम दिया
चलो वह बात भी भूल जाऊंगा
पर राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
माना कि स्वामी नहीं मैं तुम्हारा
केवल सेवक बनकर रहता हूं
तुम्हारा जीवन सुखमय करने को
हर प्रयास मैं करता रहता हूँ
तुम्हें भूखा सोना ना पड़े इस सोच में
यह भूल गया कि मैं स्वयं क्या खाऊंगा
पर राम नहीं मैं जो हर हठ मान जाऊंगा
वह हठ ही थी जो तुमने
राजपाट धन वैभव छोड़ दिया
वह हठ ही थी जो तुमने
लक्ष्मणरेखा को भी तोड़ दिया
वह हठ ही थी जो स्वर्ण मृग पाने को
मन तुम्हारा ललायित हुआ
उस हठ ही का परिणाम था वह
जो मन मेरा भी आहत हुआ
तुम अकेली नहीं थी वियोग में
उस अग्नि में जलता राम भी था
तुम रोती थी सबके सामने पर
अकेले में गलता राम भी था
तुम्हारी हठ के कारण अब मैं
और नहीं ये कष्ट उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
माना कि छल तो रावण का था
पर रेखा तुमने लांघी थी
सत्य यही है जिसकी
क्षमा भी तुम ने मांगी थी
उस एक तुम्हारी गलती ने
राम का वीर्य हिला डाला
जग पालन करने वाले को ही
जग जग का भिक्षुक बना डाला
तुम्हारी गलतियों का अब नहीं मैं
और यूँ भोग उठाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा
जिस सीता ने बलिदान दिया
त्याग किया परित्याग किया
उसके होते प्रश्न यदि यह
तो मैं भी उत्तर दे देता
प्रेम से यदि वह समर्पण करती
तो मैं भी जीवन दे देता
पर यह तो है कोई और ही माया
जिसके ऊपर है कलयुग की छाया
चाह नहीं मेरी कि तुम सीता बन जाओ
मैं भी मर्यादा पुरुषोत्तम राम कहाँ
उस रामचरित में त्याग जो है
वह भाव कहाँ वह त्याग कहाँ
सीता ने तो आर्य नियम का
पालन किया जो उसके काम थे
वो थी सीता जिसके पति
मर्यादा पुरुषोत्तम राम थे
जो तुम नहीं बन पाओगी सीता
तो मैं राम कहाँ से बन पाऊंगा
हाँ राम नहीं मैं
जो हर हठ मान जाऊंगा